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कविता

जग पानी के लिए रो रहा

ओमप्रकाश तिवारी


जग पानी के लिए रो रहा
होकर पानी-पानी राम,
रहते वक्त न ये जग चेता
बिगड़ी तभी कहानी राम।

नदियाँ सूखीं, पोखर सूखे
सूखे कुएँ तलाव रे,
हैंडपंप औ ट्यूबवेल सूखे
धरती बनी अलाव रे;
दादा जी ने पेड़ लगाए
हमने सारे काट दिए,
नई पौध न लगी एक भी,
सूखी चूनर धानी राम।

गंगा सूखीं, यमुना सूखीं
सरस्वती भी लोप रे,
बिन मौसम कोसी उफनाए
ये कुदरत का कोप रे;
पूजा पूर्वजों ने जिनको
हमने उनको बाँध दिया,
आज लग रहा विजय नहीं वो
थी मेरी नादानी राम।

रोटी रूखी, थाली सूखी
न नसीब में दाल रे,
टिके खेत में नहीं जवानी
बुरा गाँव का हाल रे;
जो बोया वो काट रहा जग
है दस्तूर पुराना ये,
जैसी करनी वैसी भरनी
ये कबिरा की बानी राम।
 
 


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